हिन्दू धर्म में शंकराचार्य कौन होते हैं, अयोध्या (राम मंदिर ) जाने से इनकार क्यों?
वो महज 32 साल तक जिए उन्होंने हिंदू धर्म के पुनरुत्थान के लिए महत्त्वपूर्ण काम किया इतनी कम उम्र में ही उन्होंने देश के इस छोर से उस छोर की यात्रा की तमाम लोगों से डिबेट की और जन्म दिया एक महान दर्शन को उपनिषदों के समंदर से अद्वैत जैसा दर्शन मथा
मैं बात कर रही हूं शंकराचार्य की ये नाम इन दिनों आपने कई बार सुना होगा आज ये पदवी है लेकिन हजारों साल पहले भारत में पैदा हुए थे
पहले शंकराचार्य जिन्होंने ना केवल हिंदू धर्म को पुनर्जीवित किया बल्कि चार मठों की स्थापना भी की शंकराचार्य हिंदू धर्म में सबसे ऊंची अथॉरिटी माने जाते हैं इतना शायद आपको पता हो
लेकिन क्या आप जानते हैं कैसे पड़ा इस पद का यह नाम नमस्कार मेरा नाम संदीप है आप देख रहे हैं हमारा खास कार्यक्रम आसान भाषा में इस आने वाली 22 जनवरी को आयोध्या में बन रहे राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आयोजन होना है जिसके बाद रामलला की मूर्ति स्थापित की जाएगी तैयारियां जोरों पर हैं इसी बीच बयानों कयासों का दौर भी जारी है कौन आएगा कौन नहीं आएगा शंकराचार्य के आने ना आने को लेकर काफी खबरें बन रही हैं तो हमने सोचा आज आपको आसान भाषा में समझाएं आदि शंकराचार्य कौन थे शंकराचार्य कैसे बनते हैं हिंदू या सनातन धर्म में इनका क्या स्थान है क्या महत्व है यह सब जानेंगे
बालक शंकर से शंकराचार्य तक के सफर से केरला के कलाडी में नमोदी पाद ब्राह्मणों की बसाहट थी
इन्हीं में एक विद्वान थे नाम था शिवगुरु उनके घर एक बेटा पैदा हुआ नाम रखा गया शंकर या बालक शंकर बालक शंकर बचपन से कुछ अलग तरह के थे जैसे-जैसे वो बड़े हो रहे थे उनकी प्रतिभा सामने आ रही थी कहा जाता है कि तीन चार साल की उम्र में उन्होंने अपनी भाषा मलयालम सीख ली वेदों को कंठस्थ कर लिया फिर आया एक मुश्किल समय जब बालक शंकर के पिता की मौत हो गई इसके बाद मां उनका पालन पोषण करने लगी
शंकर 5 साल के थे तब उनका उपनयन संस्कार जिसे आम भाषा में जनेऊ कहा जाता है वो हुआ और मां ने उन्हें शिक्षा लेने गुरु के पास भेज दिया
यहां गुरुकुल में आने के बाद बालक शंकर विद्या सीखने लगे पर जिस शिक्षा को लेने में अन्य लोगों को 20 साल लग जाते थे बालक शंकर ने उसे 2 साल में पूरा कर लिया यह पहली बार था जब दुनिया उनके ज्ञान से परिचित हो रही थी शिक्षा पूरी करने के बाद बालक शंकर वापस मां के पास कलाली लौटे
इस समय की एक कहानी बहुत प्रचलित है कहते हैं तब पूर्णा नदी जिसे आज पेरिया नदी कहा जाता है कलाली से बहुत दूर बहती थी बालक शंकर की मां को पानी भरने बहुत दूर जाना पड़ता था परंपरा में माना जाता है बालक शंकर ने भगवान से प्रार्थना की और तब से पूर्णा नदी कलाली के पास से बहती है
वापस आते हैं बालक शंकर के जीवन पर मां के साथ बालक शंकर के दिन बीत रहे थे एक दिन अगत से मुनि उनके घर आए उन्होंने मां को बताया कि बालक शंकर होंगे तो तेजस्वी पर उनकी उम्र 32 साल से ज्यादा नहीं है माया सुनकर बहुत दुखी हो गई धीरे-धीरे बालक शंकर का मन संसार से हट रहा था उनमें सन्यास लेने की इच्छा प्रबल हो रही थी पर मां उन्हें ऐसा नहीं करने देना चाहती थी
एक दिन बालक शंकर नदी में नहा रहे थे तभी एक घड़ियाल ने उनका पैर पकड़ लिया मां उन्हें बचाने के लिए चिल्लाने लगी इसी समय बालक शंकर ने मां से कहा कि अगर वो उन्हें सन्यास लेने की आज्ञा दें तो एक घड़ियाल उनका पैर छोड़ देगा मां इस बात से काफी हैरान रह गई पर बेटी की जान की खातिर उन्होंने सन्यास लेने की अनुमति दे दी और इस तरह बालक शंकर अब शंकराचार्य बनने की राह पर आगे बढ़ चले जाते-जाते मां ने उनसे कहा कि उनकी एक इच्छा है कि जब भी उनकी मृत्यु हो उनका अंतिम संस्कार शंकर ही करें शंकर ने मां से वादा किया और निकल पड़े सन्यास के रास्ते पर ऐसा माना जाता है कि घर छोड़ने के बाद शंकर कलारी से तुंग भद्रा की ओर गए फिर वहां से शके से गोकर्ण और फिर वहां से ओंकारेश्वर पहुंचे
यहां गुरु गोविंद पाद का आश्रम था जो कि सिद्ध ऋषि थे बालक शंकर उनके पास गए उन्होंने शंकर से पूछा कौन हो तुम यहां बालक शंकर ने जो जवाब दिया उसकी दूसरी मिसाल कहीं नहीं मिलती बालक शंकर कहते हैं ना मैं पृथ्वी हूं ना जल हूं ना वायु हूं ना आकाश हूं ना ही उनके गुण हूं ना इंद्रिया हूं बल्कि जो परम तत्व है चैतन्य है मैं वही हूं इस तरह के जवाब सुन ऋषि गोविंद पाद बालक शंकर से काफी प्रभावित हो गए और उन्हें अपना शिष्य बना लिया यहीं उन्हें नया नाम शंकराचार्य मिला इसलिए यहां से आगे हम भी उन्हें शंकराचार्य ही कहेंगे
12 साल की उम्र में शंकराचार्य सभी शास्त्रों को जान चुके थे पर वो ज्ञानी हैं या नहीं इसकी असली परीक्षा एक ही जगह हो सकती थी काशी वही काशी जिसे आज बनारस या वाराणसी कहा जाता है
शंकराचार्य इसके लिए काशी आए यहां कई लोग उनसे प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गए पर अभी परीक्षा बाकी थी कहानी कहती है कि एक दिन शंकराचार्य अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे तभी एक तथाकथित छोटी जाति का व्यक्ति जो कि शमशान में लाश चलाने का काम करता था वो शंकराचार्य का रास्ता रोककर खड़ा हो गया उसे देखते ही उनके शिष्यों ने कहा कि आचार्य से दूर हट जाओ ये सुनकर उस व्यक्ति ने पूछा जब आप कहते हैं कि परम तत्व सभी में एक है सबके अंदर ब्रह्म तत्व है फिर आप मुझे दूर होने को क्यों कह रहे हैं क्या आप ब्राह्मण हो और मैं चांडाल हूं इसलिए शंकराचार्य को अनुभव हुआ कि व्यक्ति का तर्क काटने लायक नहीं है उन्होंने अपने शिष्यों समेत उस व्यक्ति को प्रणाम किया यह थी बालक शंकर के शंकराचार्य बनने की कहानी
अब आसान भाषा में आगे समझते हैं कि उन्होंने किन मठों की स्थापना की और कौन से ग्रंथ लिखे काशी में शंकराचार्य ने तय किया कि वे महर्षि व्यास के ब्रह्म सूत्र श्रीमद् भगवत गीता और उपनिषदों को आम लोगों के समझने के लिए किताब लिखेंगे
इस किताब को प्रस्थानत्रई कहा जाता है इसके बाद शंकराचार्य काशी से बद्रीनाथ के लिए निकली ऐसी मान्यता है कि बद्रीनाथ में उन्होंने अलकनंदा नदी से भगवान बद्रीनाथ की मूर्ति निकालकर उसे मंदिर में स्थापित किया फिर वो वहीं व्यास गुफा में रहने लगे यहां रहने के दौरान उन्होंने भगवान शिव मां पार्वती और गणेश जी पर प्रार्थना की रचना की इसके अलावा उन्होंने वेदांत से संबंधित कई छोटे ग्रंथ लिखे
जिससे आम लोगों तक उनकी भाषा में ग्रंथ पहुंचने लगे इन्हें प्रकरण ग्रंथ के नाम से जाना जाता है शंकराचार्य के जीवन में बहुत सी दिलचस्प घटनाएं घटी लेकिन एक के जिक्र के बिना कहानी अधूरी रहेगी शंकराचार्य के वक्त में एक जानेमाने विद्वान हुआ करते थे नाम था मंडन मिश्र मंडन मिश्र महेशी में रहते थे यानी आज के बिहार का सहरसा जिला उनकी पत्नी उभय भारती भी एक विद्वान महिला थी कहानियां कहती हैं कि मंडन मिश्र इस कदर विद्वान थी कि उनका तोता भी संस्कृत के श्लोक बताता था शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच एक डिबेट का किस्सा है शंकराचार्य एक सन्यासी थे
जबकि मंडन मिश्र एक गृहस्थ दोनों के बीच शास्त्रार्थ का विषय भी यही था कि वेदों में लिखे हुए कर्मकांड उचित हैं या उपनिषदों में लिखी बातें दोनों के बीच ये तय हुआ कि अगर शास्त्रार्थ में शंकराचार्य हार जाते हैं तो वो सन्यास का त्याग कर देंगे वहीं अगर मंडन मिश्र हार गए तो वो गृहस्थ जीवन को त्याग सन्यास ले लेंगे तो शास्त्रार्थ शुरू हुआ और कई दिनों तक चलता रहा माना जाता है
शास्त्रार्थ 42 दिनों तक चला अंत में मंडन मिश्र ने शंकराचार्य से अपनी हार मान ली यानी शर्त के अनुसार उन्हें सन्यास लेना था लेकिन इतने में उभय भारती आई उन्होंने कहा मैं मंडल मिश्र की अर्धांगिनी हूं अभी आपने आधे को ही हराया है है मुझसे भी आपको शास्त्रार्थ करना होगा
हालांकि 21वें दिन भारती को ये लगने लगा कि अब वे शंकराचार्य से हार जाएंगी तब उन्होंने शंकराचार्य से कुछ ऐसा पूछा जिसका जवाब देना उनके लिए मुश्किल था सवाल था काम क्या है इसकी प्रक्रिया क्या है और इससे संतान कैसे पैदा होती है
अब शंकराचार्य ठहरे सन्यासी इसलिए उन्हें काम शास्त्र का कोई ज्ञान नहीं था लिहाजा उन्होंने अपनी हार स्वीकार कर ली शंकराचार्य ने भारती से जवाब के लिए छ महीने का समय मांगा कहा जाता है इस सवाल का जवाब जानने के लिए शंकराचार्य ने छ महीने कोशिश की इसके बाद उन्होंने फिर भारती से शास्त्रार्थ कर उनके सवाल का जवाब दिया और उन्हें पराजित किया अंत में मंडन मिश्र और भारती दोनों शंकराचार्य के शिष्य बन गए हिंदू धर्म में शंकराचार्य का सबसे बड़ा योगदान यह माना जाता है कि उन्होंने चार कोनों में चार मठों की स्थापना की हिंदू धर्म के मुताबिक मठ वो स्थान है जहां गुरु अपने शिष्यों को शिक्षा और ज्ञान की बातें बताते हैं
इन गुरुओं द्वारा दी गई शिक्षा आध्यात्मिक होती है पहले आपको बता देते हैं मठन कौन से हैं
- पहला है गोवर्धन मठ जो उड़ीसा के पूरे में स्थापित है गोवर्धन मठ के सन्यासियों के नाम के बाद आरण्य संप्रदाय नाम लगाया जाता है वर्तमान में इस मठ के शंकराचार्य हैं
- निश्चलानंद सरस्वती दूसरा मठ है शारदा मठ जो गुजरात के द्वारका धाम में स्थित है
- शारदा मठ के सन्यासियों के नाम के बाद तीर्थ या आश्रम लगाया जाता है इस मठ के शंकराचार्य हैं
- सदानंद सरस्वती तीसरा नाम है उत्तराखंड के बद्रिका आश्रम में
- ज्योतिर मठ ज्योतिर्मया सियों के नाम के बाद सागर का प्रयोग किया जाता इस मठ के शंकराचार्य हैं स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद
- चौथा और आखिरी नाम है श्रृंगेरी मठ का जो दक्षिण भारत के रामेश्वरम में स्थित है इस मठ के सन्यासियों के नाम के बाद सरस्वती या भारती का प्रयोग किया जाता है इस मठ के शंकराचार्य हैं जगतगुरु भारती तीर्थ
अभी आपने चारों मठों के बारे में सुना चारों के अपने शंकराचार्य जो असल में नाम नहीं एक पदवी है सनातन या हिंदू धर्म में शंकराचार्य का वही स्थान है जो बौद्ध धर्म में दलाईलामा या क्रिश्चियनिटी में पोप का है शंकराचार्य हिंदू धर्म के सबसे बड़े धर्माचार्य माने जाते हैं और यह पद बना कैसे जो पहले शंकराचार्य थे जिन्हें आदि गुरु शंकराचार्य के नाम से जाना जाता है उन्होंने सबसे पहले चार मठों के पीठाधीश्वर नियुक्त किए थे इसके बाद वो केदारनाथ चले गए 32 साल की उम्र में शंकराचार्य ने केदारनाथ के पास समाधि ले ली
हालांकि उनकी मृत्यु के बाद से उनके बनाए हुए मठों में आज तक शंकराचार्य की परंपरा जारी है
अब जानिए कैसे चुने जाते हैं शंकराचार्य शंकराचार्य बनने के लिए सन्यासी होना जरूर है
सन्यासी बनने के लिए गृहस्थ जीवन का त्याग मुंडन अपना पिंडदान और रुद्राक्ष धारण करना बेहद जरूरी माना जाता है इसके अलावा माना जाता है कि शंकराचार्य के पद पर बैठने वाला व्यक्ति तन मन से पवित्र हो उसके लिए जरूरी हो कि वह चारों वेद और छह वेदांग का ज्ञाता होना चाहिए
शंकराचार्य पदवी के लिए चुने जाने वाले व्यक्ति को शंकराचार्य के प्रमुख हो आचार्य महामंडलेश्वर प्रतिष्ठित संतों की सभा की सहमति और काशी विद्वत परिषद की मोहल देनी जरूरी होती है
इसके बाद शंकराचार्य की पदवी मिलती है शंकराचार्य और उनके मठों की परंपरा को बेहतर तरीके से समझने के लिए हमने बात की आदि शंकराचार्य पर किताब लिखने वाले पवन कुमार वर्मा से सुनिए उन्हे आदि शंकराचार्य जी आठवी शताब्दी में उन्होंने जन्म लिया था
व केरला में कलाडी में पैदा हुए थे और उन्होंने समाधि केदारनाथ में और पूरे देश का भ्रमण किया उ उन्होंने सनातन धर्म या हिंदू धर्म को पुनर्जीवित किया और खास तौर से विशेष विशेष तौर पर जो अद्वैत जो प्रणाली है
हिंदू दार्शनिक सोच की उसका विस्तार किया और इसके करने में जो उन्होंने अभूतपूर्व काम कि किया उससे हिंदू दार्शनिक स्तर पर जो पुनर्जीवित हुआ एक स्तर होता है जब आप कर्मकांड क्रिया कांड में लगे हैं रिचुअल में लगे हैं दर्शनिक दार्शनिक थे और उनका यही एक सर्वोच्च कंट्रीब्यूशन था इस को करने में उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया और चार जगह मठ स्थापित कि एक शेरी में दक्षिण में
एक पश्चिम में द्वारका में एकष मठ में उत्तर में और एक पुरी में पूर्वी तट पर अब आप देखेंगे तो यह भारत का सिविलाइजेशनल नक् है
जबकि अंग्रेज कहते थे कि हमने आकर के भारत जो है आज वो वो बनाया है यह आठवी शताब्दी की मैं बात कर रहा उन मठ के पीछे आदि शंकराचार्य का लक्ष य था कि एक सुनियोजित संस्थाए बन जो की हिंदू दर्शन सनातन दर्शन को रख सके अध्ययन के द्वारा और उन्होंने अपने चुनिंदा अपने जो कुछ शिष्य थे जो उनके साथ इस पूरी यात्रा पर थे
उनको अलग अलग मठ का शंकराचार्य बनाया यानी मठ का जो एक हेड होता है वो बनाया अब वो परंपरा चली आ रही है और यह कोई जहां तक मुझे मालूम है मैं हर चारों मठ में गया हूं चारों आदि शंकराचार्य से मिला हूं जब इस किताब का मैं पर शोध कर रहा था कोई सार्वजनिक चुनाव की तो प्रणाली है नहीं मठ में ही किसी को चुन कर के आदि शंकराचार्य नहीं तो शंकराचार्य घोषित कि अब शंकराचार्य जो हैं
वह एक महत्वपूर्ण मठ के हेड भी है पर वह पोप नहीं यह समझना जरूरी यानी वह जो कहे हिंदू धर्म पर या हिंदू दर्शन पर वह बाध्य नहीं उनकी सोच हो सकती है और वो बहुत से लोगों के क्योंकि हिंदू दर्शन में कोई एक पुस्तक नहीं है कोई एक मंदिर ही नहीं है कोई एक पोप ही नहीं है कोई एक 10 कमांडमेंट जैसे बाइबल में वोह भी नहीं लिखे गए हैं
एक स्तर पर वो एक बहुत ही गहरी दार्शनिक सोच है
दूसरे स्तर पर सनातन धर्म एक जीवन शैली है
आप मंदिर जाए ना जाए आप घर पर पूजा करें ना हो नास्तिक भी हो आखिरकार चारवा जो प्रणाली है वह कहती है कि वेद जो है वह झूठ है और वेद को तो श्रुति माना जाता है पर वह असत्य है और फिर भी वो हिंदू धर्म का हिस्सा है तांत्रिक प्रणाली है वह बाकी हिंदू मुख्य धारा से अलग है पर फिर भी व हिंदू धर्म का हिस्सा है तो वो उनकी यह एक एक यह उनकी हैसियत नहीं है कि वह यह कह सके कि यही सच और यही गलत है और हर हिंदू को उसका पालन करना जरूरी पर वो एक परंपरा जो आदि शंकराचार्य ने बनाई थी
चार मठों की वो आज भी जीवित है और उनके अंदरूनी स्तर पर शंकराचार्य नियुक्त हुए शंकराचार्य करते क्या हैं जैसा हमने आपको पहले बताया शंकराचार्य हिंदू धर्म में सबसे ऊंची अथॉरिटी माने जाते हैं धर्म से जुड़े किसी विषय में शंका या विवाद होने की स्थिति में शंकराचार्य की बात आखरी मानी जाती है इसके अलावा अपने मठों के अंदर आने वाले सभी धार्मिक संस्थान भी शंकराचार्य की देखरेख में ऑपरेट करते हैं अंत में ट्रिविया के लिए एक और बात बताते हुए चलते हैं
शंकराचार्य यह नाम भारत के एक लैंडमार्क केस से भी जुड़ा हुआ है
बात है 1973 की जगा थी भारत का केरला राज्य राज्य में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार थी सी अचत मेनन मुख्यमंत्री थे मेनन की कम्युनिस्ट सरकार 1969 में भूमि सुधार माने लैंड रिफॉर्म बिल आलाई थी इस बिल की वजह से केरला के एक मठ पर असर पड़ सकता था नाम था एडनी मठ जिसे एडनी मठ भी कहा जाता है फिर इस मठ के शंकराचार्य ने एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी इसमें कानूनी पेचो को हटा दे तो कुल जमा फैसला ये आया था कि सरकार यानी संसद के पास संविधान संशोधन करने के लिए असीमित शक्तियां नहीं हैं सरकार चाहे तो भी संविधान के मूल ढांचे में बदलाव नहीं कर सकती केशवानंद भारती केस के बारे में और विस्तार से जानना चाहते हैं तो लिंक पर आप चेक कर सकते हैं आज के एपिसोड में इतना ही यह तमाम जानकारी आपके लिए लेकर आए थे हमारे साथी मानस देखते रहिए य्हरेड बहुत-बहुत शुक्रिया
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